कहते हैं ना कि इस धरती पर प्रत्येक जीव का महत्व समान है। फिर चाहे यह जीव पशुओं की श्रेणी में आता हो अथवा इंसानों की श्रेणी में आता हो। यदि इस बात से इतेफाक रखा जाय तो एक सम्वेदनशील पाठक के तौर पर एक सवाल मन में जरुर आता है। इस धरती पर उन सभी शिशुओं का क्या, जिनके माता-पिता उन्हें जन्म देकर छोड़ देते हैं? कभी किसी अनाथायाली में, कभी किसी सडक के किनारे, तो कभी रेलवे पटरी पर।
वीणा कपूर की किताब “मेरा क्या कसूर” इसी सवाल पर एक बेहद संजीदा विर्मश और संदेश है।
किताब के कथा वस्तु पर बात करें तो यह किताब भारतीय परम्परा और संस्कृति पर हावी होती आधुनिक तथाकथित पाश्चात्य संस्कृति के विभिन्न पक्षों को उजागर करती है। वर्तमान समय युवाओं और युवतियों का दौर है। जिनमें अपार ऊर्जा और सम्भावना भरी हुयी है। क्या ये इस ऊर्जा और सम्भावनाओं को सही दिशा दे पा रहे है? वीणा कपूर अपने इस किताब में इस बात पर चर्चा करती हैं कि कैसे एतिहासिक दृष्टान्तों को आधार मानकर आजकल लोग रिश्तों को शर्मसार कर रहे हैं। अपने जिम्मेदारियों से पीठ दिखा कर भाग रहे हैं।
स्त्री और पुरुष इस धरती पर मानव सन्तति के निरंतरता के लिए आवश्यक हैं। यह बहुत ही प्राकृतिक है।
लेकिन जब युवक और युवतियां अपने मानसिक और शारीरिक विकास के क्रम को उचित दिशा में नहीं समझ पाते हैं, तो उनकी संगति गलत होती जाती है। भारतीय संस्कृति और परम्परा के अनुसार सन्तति उत्पति का अधिकार विवाहोपरांत प्राप्त होता है। परत्नु आज की युवा पीढ़ी इस अधिकार और व्यवस्था को नकारते हुए इसका उलंघन कर रही है। अवैध तरीके से इस अधिकार को प्राप्त कर इसे ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ का नाम देती है। समय से पूर्व और उचित व्यवस्था के विपरीत इस अधिकार का दुस्परिनाम भी दिखाई देता है। यह दुस्परिणाम विभिन्न रूपों में दीखता है। इस व्यवस्था से उत्पन्न सन्तान को फिर यही युवा पढ़ी अपनाने से इंकार करती है। इस दुस्परिणाम को वैध साबित करने के लिए कुंती और महादानी कर्ण का कुर्तक देते हैं। सवाल यह यह कि यदि एक क्षण के लिए यदि इन युवक युवतियों को नासमझ मानकर माफ़ भी आकर दिया जाये तो, उस बच्चा का क्या होगा जिसको इनलोगों ने जन्मा है और अपनी पहचान देने से इंकार कर रहे हैं? क्या ये युवा और युवती इस बालक/बालिका और समाज के साथ न्याय कर रहे हैं? ऐसे ही सवाल और अंतर्वेदना इस उपन्यास के घटक और मूल आत्मा हैं।
किताब के अन्य पक्षों यथा भाषा शैली, किताब का मुख्य आवरण, पात्र, संवाद पर बात करें तो यह किताब इन सबसे से परिपूर्ण हैं। किताब में प्रयुक्त शब्द बेहद सरल और सहज हैं। पात्रों के नाम जाना पहचाना सा लगता है। मसलन रुपाली, छोटू इत्यादि। इसकी वजह से पाठक किरदारों से रच बस जातें हैं। चुकीं, विमर्श नयी पीढ़ी के इर्द गिर्द है तो कुछेक पात्र बिकुल अंग्रेजी शैली के हैं जैसे जाँन, क्रिस्टा इत्यादि।
संवाद कि दृष्टिकोण से कई जगह सम्वादों में दार्शनिकता और संदेश मिलता है। मसलन “अरे कौन सी कृपा कर रहें हैं ये दूरदर्शन वाले। औरत की, महिलाओं की, स्त्रियों की चिंता भला आज तक समाज में किसी को हुई है क्या। उसकी जिन्दगी तो बस “नोन, तेल लकड़ी में ही बांध कर रह गई है”” कहीं कहीं उलाहने भरे वाक्य कवाह्त का स्वाद दे जाते हैं। जैस पृष्ठ संख्या 04 पर एक वाक्य है-“बड़ा ज्ञान बाटने आ गया है।”
किताब का आवरण बेहद शानदार और संदेशपरक है। रेलवे की पटरी पर एकपुरुष एक बालक को ले जाते हुए दिखाई दे रहा है और उन दोनों को दूर खड़ी एक स्त्री देख रही है। यह चित्र ही इस किताब का विर्मश है।
निष्कर्षतः यह किताब वर्तमान युवा पीढ़ी के लिए एक सीख और भारतीय संस्कृति के प्रति एक सजगता देती है। बुकनर्ड्स हिंदी इस किताब को पढने के लिए आपको अनुशंसित करता है।
Comments