top of page
  • Writer's pictureRohan Raj

राष्ट्रवाद

राष्ट्रवाद स्वयं में एक ऐसा शब्द है, जिसने वर्तमान में सबका ध्यान आकर्षित किया है। दुनिया में हो रही उथल पुथल कहीं न कहीं राष्ट्रवाद के इर्द गिर्द ही गतिमान या स्थिर है और बात यदि भारत के संदर्भ में करें तो यह शब्द और अधिक विमर्श पूर्ण बन जाता है। आज की किताबी समीक्षा में राष्ट्रवाद के अर्थ, प्रकृति और इतिहास के बारे जानने की कोशिश करेंगे। इसलिए, आज के लिए जिस किताब को लेकर आये है, उसका नाम है- “आज के आईने में राष्ट्रवाद”।


आज के आईने में राष्ट्रवाद नामक किताब को लिखने में लगभग पंद्रह विद्वानों के लेखों और शोध कार्यों को शामिल किया गया है। ये सभी शिक्षाविद है और अपने क्षेत्र में महारथी हैं। इस किताब के सम्पादक हैं, लखनऊ विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर रविकांत। इस किताब को कुल पंद्रह अध्यायों में विभाजित किया गया है। 

यदि इस किताब के तहखाने में जाएं तो पढ़ते वक्त एक पाठक के रूप में हमें विभिन्न शिक्षाविदों के विचार, शोध, देश में घटित घटनाएँ और इन सबका राष्ट्रवाद से क्या सम्बन्ध रहा है, जैसे पक्ष जानने को मिलता है।



अनिल सदगोपाल अपने लेख ‘राष्ट्रवाद बनाम जनवाद और शिक्षा का सवाल’ में कहते हैं- “अब सवाल उठता है कि वर्तमान इंडिया, भारत या हिन्दुस्तान कहाँ से आया। वास्तव में, यह एक बेजोड़ और ऐतिहासिक जनआन्दोलन से निकला है। लगभग दो साल तक ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ इस उप-महाद्वीप के अलग-अलग इलाकों में नवाबों व राजाओं से लेकर आदिवासियों-दलितों, किसानों व खेतिहर मज़दूरों, फ़ौजी सिपाहियों और महिलाओं, विद्यार्थियों व युवाओं ने जल जंगल-ज़मीन और अपनी इज्ज़त, पहचान व हकों के लिए जो आवाज़ें उठाईं और लड़ाइयाँ लड़ीं हैं उसी जनआन्दोलन से आज का भारत निकला है। इस भारत को बनाने की कहानी सचेत त्याग व शहादत की कहानी है। इसीलिए हमारा मानना है कि भारत एक विचार है, न कि महज़ एक भू-भाग।” राष्ट्रवाद की परिकल्पना राष्ट्र और उस राष्ट्र के लोग से है। यह कोई विचारधारा नहीं है जो बनता, बिगड़ता और क्षण भर में परिवर्तित होता है।



बल्कि, राष्ट्र और उसके लोगों को जीवन जीने का एक तरीका भी बताता है। राष्ट्रवाद को प्रत्येक व्यक्ति अपनी समझ और अवधारणा के अनुसार धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दृष्टिकोण दे सकता है। लेकिन, इन सबके परिकल्पनाओं में राष्ट्र के व्यक्ति की समता, न्याय और समानता की गैर हाजिरी है, तो हम राष्ट्रवाद को अपने पूर्ण अवधारणा से इतर रास्ते ले जा रहे हैं। इस बात को समझना जरूरी है। इसलिए तो अनिल जी कहते है कि राष्ट्रवाद में समाज के हर एक उस हिस्से का पहुंच और भागीदारी सुनिश्चित करना चाहिए, जो इसके असल में वैध हकदार है।


तनिका सरकार राष्ट्रवाद जैसे महत्वपूर्ण विमर्श में गांधियन दृष्टिकोण की बात करती हैं। वह कहती है कि “मैं गांधी के दो राष्ट्रवाद सम्बन्धी अन्तर्बद्ध परिप्रेक्ष्यों पर चर्चा करूँगी जिसमें पहला है ‘ग़रीबी’ और दूसरा ‘जाति’। मैं यहाँ आदिवासियों के बारे में बात नहीं करूँगी क्योंकि गांधी असमझौतावादी धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे। गांधी ने अपने नैतिक तथा आत्मिक ज्ञान के लिए ईसाई तथा इस्लाम को अभिस्वीकृति प्रदान की है। वे अपनी अटूट भक्ति के साथ कहते थे कि ईश्वर की दृष्टि में सभी धर्म को मानने वाले व्यक्ति समान हैं। वह यह भी कहते थे कि यद्यपि मैं स्वयं गाय की पूजा करता हूँ फिर भी मैं किसी पर उसकी पूजा करने का दबाव नहीं डालूँगा।


राष्ट्रवादियों के लिए देश अखंड सर्वोच्च इकाई है जिसे सभी पहचानों तथा प्रतिबद्धताओं से ऊपर गिना जाना चाहिए। गांधी की दृष्टि में राष्ट्र के दो आदर्श स्वरूप थे। उन्हें रामराज्य की अवधारणा में विश्वास था।” महात्मा गाँधी कहते है कि भारतीय समाज में असमानता है फिर भी शक्तिशाली और कमजोर वर्ग के बीच आपसी सहयोग और प्रेम सम्भव है और उन्होंने आजादी के दौरान राष्ट्रवाद के इस पक्ष का खूब सफल प्रयोग किया।

तनिक सरकार के इस आलेख में गांधी के रामराज्य की परिकल्पना को रामायण से समझ जा सकता है।


ट्रस्टीशिप को तुलसीदास के रामचरितमानस के रामराज्य से अधिक स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है, जिसने गांधी को स्वराज्य का विचार दिया। तनिका कहती हैं कि रामराज्य, जिसमें शासक और उसकी प्रजा के बीच वैसा ही सम्बन्ध होता है जैसा पिता और पुत्र के बीच, जहाँ प्रजा शासक जितनी बुद्धिमान नहीं होती। यहाँ राजा और प्रजा के बीच श्रेष्ठता और हीनता का भेद होता है। गांधी ने शक्ति का अनुवाद वर्चस्वता के रूप में किया है। वर्चस्वता अधीनस्थ लोगों की सक्रिय सहमति तथा इच्छा पर आधारित होती है। यहाँ तक कि राजा और प्रजा के बीच पदानुक्रम बिलकुल स्पष्ट और स्वाभाविक बना रहता है।


इसके लिए गांधी कभी-कभी व्यक्तिगत उदाहरणों से सिद्ध करते थे। तनिका के अनुसार जो सबसे अहम बात उन्हें गांधी जी के राष्ट्र की परिकल्पना में दिखती है वह यह कि उनका देश अपने विरोधाभासों और कर्मों को पहचान सकेगा तथा अपने द्वारा किये गए गलत कर्मों पर उसे पछतावा भी होगा। आत्मान्वेषण कर अपने अन्दर की कमियों को पहचानना गांधी के देश का सबसे बड़ा गुण होगा। एक देश जो अपनी गलतियों को मानने से इंकार करता है, वह देश सदैव भयग्रस्त रहता है।

निवेदिता मेनन अपने लेख में “राष्ट्रवाद और जनवाद” में कहती है कि राष्ट्रवाद की बात सबसे पहले भाषा से ही शुरू करना उचित होगा। असली सवाल यह है कि अगर राष्ट्र में एकता लाने के लिए एक भाषा होनी चाहिए, तो वह भाषा कौन-सी होगी? कौन-सी जुबान होगी?


कौन यह तय करेगा कि इस देश की भाषा या जुबान कौन-सी होगी? होता क्या है कि जब भी निर्णय लिया जाता है कि एक देश के लिए किसी एक चीज की जरूरत है, चाहे वह भाषा हो, सिविल कोड हो या कुछ और। इस विमर्श पर बात आगे ले जाये उससे पहले इतिहासकार रेनान की बात करते हैं। उन्नीसवीं सदी के इतिहासकार एर्न्स्ट रेनान ने कहा था ‘Nation is a Daily Plebiscite’ यानी कि ‘राष्ट्र एक रोजाना रायशुमारी है’। इसका अर्थ है कि राष्ट्र कोई प्राकृतिक चीज नहीं है।



राष्ट्र का एक इतिहास है। जब हम कहते हैं कि राष्ट्र एक ‘रोजाना रायशुमारी’ है, तब हम क्या कर रहे हैं? हम जनतंत्र को ज्यादा प्राथमिकता दे रहे हैं। हम कह रहे हैं कि सबसे बड़ा मूल्य है, जनतंत्र। जनतंत्र एक प्रक्रिया है जो जारी रहती है, चलती रहती है और वो कभी खत्म नहीं होती। जब आपको लगेगा कि सभी तबके इसमें आ गए हैं, तभी एक नयी ‘पहचान’ खड़ी हो जाएगी, यह दावा करते हुए कि आपने हमारे बारे में नहीं सोचा। तरह-तरह की चुनौतियाँ आएँगी। 


राष्ट्रवाद पर एक सवाल और उस पर निवेदिता मेनन के जवाब को यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। जिससे राष्ट्रवाद के परिकल्पना को समझने में मदद मिलेगी।


प्रश्न : आप कश्मीरी पंडितों के बारे में क्या कहेंगे, जिनको अपने घरों से भगा दिया गया है? 


जवाब : यहाँ भी मुश्किल राष्ट्र को लेकर ही है। जब राष्ट्र बनता है किसी एक पहचान के आधार पर, और उस एक पहचान को ही सही राष्ट्रीय पहचान माना जाता है, तो वही मसला उठता है, जिसे हमने हिन्दुत्ववाद के साथ देखा। इस्लामी राष्ट्रवाद उतना ही खतरनाक है। वो राष्ट्रवाद जिसमें अल्पसंख्यकों के लिए जगह नहीं है, वो खतरनाक है। जनतंत्र में बहुमत कभी जन्माधारित पहचान पर नहीं तय किया जा सकता, क्योंकि फिर या तो लोग बहुमत में जन्म से हैं, या ज़िन्दगी भर अल्पमत में रहेंगे। जनतंत्र में बहुमत लोगों की राय के मुताबिक तय किया जाना चाहिए। अलग-अलग सवालों को लेकर तय किया जाना चाहिए, जैसे कि अर्थव्यवस्था कैसी हो, वगैरह। इस तरह के सवालों में लोगों की राय बदलती रहेगी, और कुछ सवालों में कोई बहुमत में है, तो कुछ और सवालों में वही लोग अल्पमत में होंगे। लेकिन जब धर्म या जाति या नस्ल के आधार पर राष्ट्र का गठन होता है, तो वो राष्ट्र कभी जनतांत्रिक नहीं हो सकता।


निष्कर्षतः यह किताब एक पाठक को राष्ट्रवाद और इससे जुड़े विभिन्न पक्षों पर एक समावेशी दृष्टिकोण देती है। इस किताब में एतिहासिक तथ्यों का समावेशन किताब को एक नया आयाम देता है। भाषा शैली बिल्कुल सहज और सामान्य है। चूंकि यह किताब विभिन्न लेखों और व्याख्यानों का संग्रह है, इसलिए इसे इसी शैली में लिखा गया है। बुकनर्ड्स हिंदी पाठकों को यह किताब पढने के लिए अनुशंसित करता है।



संपादन - रविकांत 

प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन



बुकनर्डस से सर्वेश

0 views0 comments
bottom of page